सुप्रीम कोर्ट ने प्रेसिडेंट को दी डेडलाइन: फेडरल स्ट्रक्चर को मजबूत करता ऐतिहासिक फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने प्रेसिडेंट को दी डेडलाइन: फेडरल स्ट्रक्चर को मजबूत करता ऐतिहासिक फैसला

इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने भारत के राष्ट्रपति को किसी मुद्दे पर समयबद्ध निर्णय लेने का निर्देश दिया है। यह मामला सीधे तौर पर संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 से जुड़ा है, जो गवर्नर और राष्ट्रपति की विधायी प्रक्रिया में भूमिका को परिभाषित करता है।

President Assent Deadline


मामले की पृष्ठभूमि

तमिलनाडु सरकार ने 10 विधेयक (Bills) पारित किए थे, लेकिन राज्यपाल ने न तो उन पर हस्ताक्षर किए, न ही उन्हें अस्वीकार किया और न ही राष्ट्रपति के पास भेजा। इसे लेकर तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। कोर्ट ने इस पर कड़ा रुख अपनाया और कहा कि राज्यपाल और राष्ट्रपति दोनों बिलों पर अनिश्चितकाल तक निर्णय टाल नहीं सकते



संवैधानिक प्रावधान: आर्टिकल 200 और 201

अनुच्छेद 200 के अनुसार, किसी राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयक पर गवर्नर के पास चार विकल्प होते हैं:

  1. विधेयक को स्वीकृति देना (Give assent)
  2. स्वीकृति रोकना (Withhold assent)
  3. राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखना (Reserve for President)
  4. पुनर्विचार के लिए विधानसभा को वापस भेजना (Return the Bill)

अनुच्छेद 201 कहता है कि अगर गवर्नर विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजते हैं, तो राष्ट्रपति निर्णय लेंगे। लेकिन इसमें कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई थी, जिससे बार-बार "पॉकेट वीटो" जैसी स्थिति उत्पन्न हो रही थी।

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट निर्देश दिया है कि:

  • गवर्नर को विधानसभा से विधेयक मिलने के एक महीने के अंदर निर्णय लेना होगा – स्वीकृति देना, वापस भेजना, या राष्ट्रपति के पास भेजना।
  • अगर विधेयक राष्ट्रपति के पास भेजा गया है, तो राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर उस पर निर्णय लेना होगा।
  • अगर राष्ट्रपति स्वीकृति नहीं देते हैं, तो उसका कारण राज्य सरकार को बताना अनिवार्य होगा।

फैसले के दूरगामी प्रभाव

यह निर्णय भारतीय संघीय ढांचे (Federal Structure) को और अधिक मजबूत बनाता है। यह सुनिश्चित करता है कि केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच शक्ति का संतुलन बना रहे। विशेषकर उन राज्यों के लिए जहां विपक्षी दलों की सरकारें हैं – जैसे तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल – यह फैसला एक संवैधानिक सुरक्षा कवच की तरह कार्य करेगा।

साथ ही यह भी कहा गया कि अगर राष्ट्रपति या राज्यपाल तय समय पर निर्णय नहीं लेते हैं, तो यह असंवैधानिक माना जाएगा और उसे अदालत में चुनौती दी जा सकेगी।



तमिलनाडु सरकार की प्रतिक्रिया

इस फैसले के अगले ही दिन तमिलनाडु सरकार ने बिना राष्ट्रपति की स्वीकृति के 10 में से 10 विधेयकों को नोटिफाई कर दिया, जिससे एक नया संवैधानिक विवाद पैदा हो सकता है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट की मंशा स्पष्ट थी कि हर स्तर पर जवाबदेही और समयबद्ध निर्णय की व्यवस्था हो।

आलोचना और समर्थन

इस फैसले को लेकर बहुत सारी प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। कई लोगों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट जो कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में दखल दे रही है, जबकि अन्य इसे कानूनी और लोकतंत्र की आत्मा के अनुरूप मानते हैं।

निष्कर्ष

इस फैसले से एक बात स्पष्ट है कि भारत के लोकतांत्रिक और संघीय ढांचे में टाइमलाइन आधारित निर्णय अब आवश्यक बन गए हैं। इससे न केवल राज्यों की कार्यक्षमता बढ़ेगी बल्कि राजनीतिक टकराव की स्थितियों में भी कमी आएगी। यह फैसला संविधान के उस सिद्धांत को बल देता है जिसे हम कहते हैं – Cooperative Federalism

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने